राजनैतिक बिसात पर करारी शिकस्त पाने के बाद परंपरागत राजनीति तो यही कहती है कि अपनी पुरानी भूल सुधार कर जनता की अदालत में दोबारा अपना पक्ष रखा जाना चाहिए. लेकिन बदलते हुए राजनैतिक परिवेश में शायद वह राजनैतिक परंपरा बहुत पीछे छूट गयी है. उसकी जगह अब धमकियों और नकारा नारों ने ले ली है. 2014 के बाद से तो राजनीति का एक धड़ा ‘अंध विरोध’ को ही एकमात्र एजेंडा बना कर चल रहा है.
कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल ने कल एक प्रेस कांफ्रेंस की थी. ज़ाहिर सी बात है कि सरकार की वाहवाही करने के लिए तो इतना बड़ा ताम-झाम बैठाया नहीं होगा. आलोचना और आरोपों के मध्य वह एक ऐसी बात कह गए जिसको सुन देश का लोकतंत्र शायद चकित हो उठा होगा. उन्होंने कहा कि अधिकारियों को यह समझना होगा कि चुनाव आते और जाते रहते हैं. कभी हम विपक्ष में तो कभी सत्ता में होते हैं. हम उन अधिकारियों के ऊपर नज़र रखेंगे जो प्रधानमंत्री और सरकार की तरफ अपनी वफादारी दिखा रहे हैं. उनको यह याद रखना चाहिए कि देश का संविधान किसी भी चीज़ से ऊपर है.
नेता जी की ‘नज़र रखने’ वाली बात इतनी गंभीर है कि इसको नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है. एक रूप से तो यह मखमल में लपेट मारी गयी एक धमकी ही थी. टीवी सीरियलों और थर्ड क्लास बॉलीवुडिया फिल्मों में ही ‘तुझे देख लूँगा’ वाला डायलाग सुना था. राजनीति में इसका अवतरण दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है. मज़े की बात यह रही कि अपनी बातों के बीच उन्होंने ‘संविधान सर्वोच्च है’ वाली बात दोहरा दी ताकि बात को ‘जस्टिफाई’ किया जा सके, मगर यह ‘जस्टिफिकेशन’ प्रयाप्त नहीं था. जिन सरकारी अधिकारियों पर ‘नज़र रखने’ की बात की गई है, वे सभी उसी संवैधानिक प्रक्रिया को पार कर उस पद पर बैठे हैं, जिस संविधान की दुहाई दी जा रही है.
दूसरी तरफ़ उनकी पार्टी द्वारा ‘संविधान खतरे में है’ वाला कैंपेन भी चलाया जा रहा है. ये दोनों ही बातें अपने आप में परस्पर विरोधाभासी लगती हैं. अगर संविधान खतरे में है और अभिव्यक्ति की आज़ादी छीन ली गयी है, तो ‘चौकीदार चोर है’ जैसे नारे चुनावी मैदान में कैसे बोले जा रहे हैं? इसी बीच रोज़ प्रेस कॉन्फ्रेंस कर किसी न किसी संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह भी लगाए जाते हैं. ऐसा तब है जब उनके ही राज में ‘CBI’ जैसी स्वायत्त संस्था को ‘पिंजरे का तोता’ माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बोला जा चुका हो.
अभी आज ही प्रियंका गांधी का रोड शो भी हुआ है. कोंग्रेसी समर्थकों की माने तो ‘सफल रोड शो’ हुआ है. कहीं से भी यह लोकतांत्रिक खतरे की निशानी तो नहीं, अपितु एक स्वस्थ लोकतंत्र का उदाहरण है. पक्ष और विपक्ष एक स्वस्थ राजनैतिक लड़ाई अपनी ताकतों और कमज़ोरियों के साथ लड़ रहे हैं. दूसरी तरफ हमने एक एक ऐसा राज्य भी देखा जहां की मुखिया ने विपक्षी दल के दो मुख्य नेताओं के हेलीकॉप्टर तक नहीं उतरने दिए थे, लेकिन वहाँ की मुखिया से कोई सवाल जवाब नहीं कर रहा है. असल में लोकतंत्र में खतरा इसको कहते हैं. इसी देश ने इमरजेंसी का भी एक कालखण्ड देखा है. विपक्षियों को जेलों में भरा जा रहा था. सभी संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए थे. ज़बरदस्ती नसबंदी की जा रही थी. ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’ के नारे प्रबल थे. यह अलग बात है कि उस समय इंदिरा गांधी के खिलाफ खड़ी विपक्ष की शक्ति आज विभिन्न दलों के खंडों में बंटी हुई है, लेकिन वो सभी इसी स्वस्थ लोकतंत्र में अपनी राजनैतिक लड़ाइयां लड़ रहे हैं.
कपिल सिब्बल की यह बात लोकतांत्रिक व्यवस्था पर एक प्रश्नचिन्ह है. वस्तुतः यह उनके लिए ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ है. तो प्रश्न यह खड़ा होता है कि जब वो अपनी इस आज़ादी का प्रयोग कर रहे हैं, तो संविधान को खतरा कहाँ है? दूसरी तरह उनका अधिकारियों पर ‘नज़र रखने’ वाली बात अवश्य संविधान को एक चुनौती है.
एक स्वस्थ लोकतंत्र में जनता की अदालत के अंदर राजनैतिक लड़ाई लड़ी जाती है. अगर इस प्रकार से सरकारी अधिकारियों को उनकी वफादारों के लिए ‘अल्टीमेटम’ दिए जाने लगे, तो बाबा साहेब अंबेडकर और सरदार पटेल जैसी विभुतियों को कष्ट होगा. इस देश की प्रत्येक संवैधानिक संस्था की अपनी विश्वसनीयता है. तुच्छ राजनैतिक लाभ के लिए कम से कम देश की नींव पर प्रहार न किया जाए.