पुलवामा में भारतीय सेना, अर्धसैनिक बल के जवान लगातार देश तोड़ने वालों से जंग में जुटे हैं। पिछले चार दिनों में 45 जवान शहादत दे चुके हैं मगर सवाल है कि आतंकियों को ये हौसला कहां से मिलता रहा है। जवाब 17 फरवरी को सरकार द्वारा उठाए गए कदम में मिलता है जिसके तहत घाटी के छह अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा और सुविधाएं सरकार ने वापस ले ली हैं। दरअसल कश्मीर में आज जो भी हालात हैं उनके पीछे कहीं न कहीं इन्हीं नेताओं का काला इतिहास छिपा हुआ है।
आज से नहीं बल्कि 1960 के दशक से इन नेताओं ने हिंसात्मक चरमपंथ का जो रास्ता चुना उसने कश्मीर को आज इस स्थिति में पहुंचा दिया है। सरकार ने जिन छह अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा और सुविधाएं वापस ली हैं उनमें ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज उमर फारूक, जम्मू एवं कश्मीर डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी के अध्यक्ष शब्बीर शाह, जम्मू-कश्मीर डेमोक्रेटिक लिबरेशन पार्टी का अध्यक्ष हाशिम कुरैशी, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स इंडिपेंडेंट मूवमेंट के प्रमुख बिलाल लोन, हुर्रियत नेता अब्दुल गनी बट और फजल हक कुरैशी शामिल हैं। लंबे समय से भारत सरकार के पैसे पर ऐश करने वाले इन सभी अलगाववादी नेताओं का अतीत स्याह रहा है।
मीरवाइज उमर फारुख कश्मीर के मुस्लिमों के पारंपरिक मजहबी गुरु हैं जिनका खानदान पीढ़ियों से कश्मीर का मीरवाइज होता आया है। उमर फारुख ने साल 1990 में अपने पिता मीरवाइज मौलवी फारुख की हत्या के तत्काल बाद सिर्फ 17 वर्ष की उम्र में जम्मू कश्मीर के 23 अलगाववादी दलों को मिलाकर हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का गठन कर डाला था और ये संगठन लगातार कश्मीर में अलगाववादी गतिविधियों को अंजाम देता रहा है। उमर फारुख के पिता के जनाने के वक्त भीषण रक्तपात हुआ था जिसमें 72 लोगों की मौत हुई थी और इस रक्तपात का सबसे अधिक फायदा उमर फारुख को ही पहुंचा था और उसके बाद से कश्मीर के लोगों के बीच उमर की राजनीति चमक उठी थी
अलगाववादी नेता हाशिम कुरैशी का नाम तो इसकी कारगुजारियों के कारण भारत-पाकिस्तान के इतिहास में दर्ज हो चुका है। मात्र 17 वर्ष की उम्र में 1971 में अपने चचेरे भाई के साथ मिलकर इसने भारतीय यात्री विमान गंगा का अपहरण कर लिया और उसे पाकिस्तान के लाहौर ले गया। वहां इनका पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष जुल्फिकार अली भुट्टो ने हीरो की तरह स्वागत किया।
इस विमान को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने लाहौर में जला डाला। विमान में चालक दल समेत 30 लोग थे जिन्हें अंतरराष्ट्रीय दबाव में भारत वापस भेजा गया। वर्ष 2000 में भारत लौटने के बाद से कुरैशी पर विमान अपहरण का मामला चल ही रहा है। कुरैशी दशकों तक कश्मीर में दहशत का पर्याय रहे जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापक सदस्यों में से है और इस संगठन के पूर्व अध्यक्ष मकबूल बट (1984 में तिहाड़ में फांसी दी गई) का चेला रहा है।
भारत के खिलाफ कश्मीर में जिहादी गतिविधियों की शुरुआत करने का श्रेय फजल हक कुरैशी को जाता है। घाटी में इसी बंदे ने अपने तीन दोस्तों के साथ मिलकर 1964 में जिहादी मूवमेंट की शुरुआती की थी। लगातार 44 साल तक ये कश्मीर में जेहाद की तरफदारी करता रहा। नामी आतंकी अब्दुल मजीद डार इसका दोस्त और सहयोगी रहा है। अपनी जुबानी इसने ये कबूल किया है कि 300 से अधिक युवाओं को पाकिस्तान भेजकर हथियार चलाने की ट्रेनिंग दिलाई।
अब्दुल गनी बट का नाम भी देश के लिए अनजाना नहीं है। कभी जम्मू-कश्मीर में फारसी के प्रोफेसर रहे बट को 1986 में नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। दरअसल बट पर अपने दोस्तों के साथ कश्मीर में हिंदुओं के घरों को जलाने का आरोप था। घोर सांप्रदायिक माना जाने वाला अब्दुल गनी बट लगातार कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की हिमायती करता रहा है।
वर्ष 1968 में मात्र 14 साल की उम्र से शब्बीर शाह भारत के खिलाफ जहर उगल रहा है। ये भी घोर सांप्रदायिक व्यक्ति है जिसने 1972 में महज 18 साल की उम्र में जम्मू में हिंदुओं के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किया और 9 महीने के लिए जेल भेजा गया। बाहर आया तो उसके आका पाकिस्तान के दो टुकड़े हो चुके थे। इसने भारत-पाकिस्तान के बीच हुए शिमला समझौते को मानने से इनकार कर दिया और खुल कर कश्मीर को भारत से अलग करने की साजिशें रचने लगा। पिछले साल प्रवर्तन निदेशालय ने इसे विदेश से हवाला के जरिये पैसे मंगाने के आरोप में गिरफ्तार किया था।
बिलाल लोन भी पूर्व आंतकी रहा है। इसका भाई सज्जाद लोन कश्मीर की पिछली सरकार में मंत्री था। दोनों भाई लंबे समय तक जेकेएलएफ से जुड़े रहे हैं। इन सभी अलगाववादियों के कारण आज तक कश्मीर सुलग रहा है।
ये आज भी देश को तोड़ने की साजिश में लगे हैं जिसका देश को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। उसपर भी तुर्रा ये कि ये सभी भारत के पैसे पर ही अपनी जान सलामत रखे हुए हैं। इनकी सुरक्षा वापस लेकर भारत सरकार ने देर से ही सही मगर सही कदम उठाया है।