जलियांवाला बाग नरसंहार की पूरा विश्व 100वीं बरसी मना रहा है। यह नरसंहार भारतीय आजादी के इतिहास में कई तरह से एक अहम मोड़ साबित हुआ। स्पष्ट रूप से अंग्रेज भारतीयों में फूट डालकर अपनी हुकूमत को मजबूत रखना चाहते थे, लेकिन 13 अप्रैल 1919 से पहले पंजाब में हिंदू- मुस्लिम एकता उन्हें गली-गली में दिखाई देती थी और यही बात उन्हें परेशान कर रही थी।
पंजाब में इस एकता के सूत्रधार कोई और नहीं बल्कि खुद भगवान श्रीराम बने। 1919 में मार्च के अंत व अप्रैल के शुरू में जब रोलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह ने जोर पकड़ा तो अमृतसर में इसका नेतृत्व डॉ. सैफुद्दीन किचलू तथा डॉ. सतपाल ने किया। दोनों नेता हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बने। इसी एकता को और मजबूत करने के लिए 9 अप्रैल 1919 को श्री रामनवमी उत्सव धूमधाम से मनाने का फैसला लिया गया। एकता का संदेश देने के लिए शोभायात्रा का आयोजन भी एक मुस्लिम डॉ. बशीर द्वारा किया गया जो अंग्रेजी हुकूमत को बिल्कुल रास न आया। लोग सांप्रदायिक सौहार्द का प्रदर्शन करते हुए जुलूस में शामिल हुए। जगह-जगह मुसलमानों ने शोभायात्रा के स्वागत में तोरणद्वार लगाए, शरबत की सेवा की, पुष्पवर्षा की, हिंदू भाईयों को गले मिले और खुद शोभायात्रा में शामिल हुए। इस पर अमृतसर के उपायुक्त माइल्स इरविंग को शक हुआ कि यह एकता केवल जुलूस तक सीमित नहीं है, बल्कि अंग्रेज शासन को खत्म करने की ओर कदम है।
उस दिन से उसका सत्याग्रहियों पर शक बढऩे लगा। इसी तरह की एकता का नजारा लाहौर में भी देखने को मिल रहा था। वहां हिंदू बंधु बादशाही मस्जिद में जाकर राजनीतिक घोषणाएं कर रहे थे। इसी प्रकार देश के विभिन्न भागों में मंदिरों में जाकर मुस्लिम सभाओं को संबोधित कर रहे थे। देश में एकता की एक अनोखी बयार बह रही थी, जो अंग्रेजों के लिए चिंता का सबब बन गई थी। हालांकि बंबई जैसे शहर में इसे बर्दाश्त किया जा रहा था, लेकिन पंजाब के गर्वनर ओ ड्वायर जैसे कठोर शासकों को यह एकता डरा रही थी। उसका यही डर उस नरसंहार का कारण बना। यही कारण रहा कि रामनवमी के बाद हिंदू-मुस्लिम नेताओं की गिरफ्तारियां तेज कर दी गईं। उन्हें जलील किया गया, यातनाएं दी गईं और यह कुबूल करवाने का प्रयत्न हुआ कि वे हुकूमत के विरुद्ध क्रांति की योजना बना रहे थे। जनता, जो अब तक महात्मा गांधी के सत्याग्रह से जुड़ चुकी थी, अब विद्रोह पर उतर आई थी।
पंजाब का क्रांतिकारी माहौल
पंजाब में स्वतंत्रता संग्राम के लिए स्वतंत्रता संग्रामी विविध रूपों में एकजुट होते रहे। पेशावर से लेकर ढाका तक क्रांतिकारियों का एक गलियारा तैयार हो गया। 1 नवंबर 1913 को संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन फ्रांसिस्कों में जुझारू आंदोलन शुरु हो गया। उसका नेतृत्व प्रखर बुद्धिजीवी लाला हरदयाल द्वारा किया गया। इसमें नौजवान स्वतंत्रता सेनानी जुड़ते गए। इनमें प्रमुख थे रामचंद्र, बरकतउल्ला, भाई परमानंद, हरनाम सिंह, टुंडा लाट, सोहन सिंह बाकना, रामदास, भगवान दास, करतार सिंह सराभा और रघुबीर दयाल गुप्ता। अपनी आवाज दूर-दूर तक पहुंचाने के लिए एक पत्रिका भी निकाली गई। आंदोलन और पत्रिका, दोनों का नाम 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सम्मान में ‘गदर‘ रखा गया। आरंभ में गदर पत्रिका उर्दू में प्रकाशित की गई और फिर गुरुमुखी, गुजराती और हिंदी में भी इसका प्रकाशन होने लगा।
कामागाटामारु प्रकरण
स्वातंत्र्य वीरों के संघर्ष और साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा उन पर किए जाने वाले जुल्मों-सितम से विश्व को अवगत कराने के समय-समय पर कुछ अभियान चलाए जाते। एक चर्चित उदाहरण है कामागाटामारु का। संक्षेप में घटना इस प्रकार है कि 1914 में सिंगापुर से पानी के एक जहाज में भरकर भारतीय गदरी जत्थे कनाडा की ओर रवाना हुए। कनाडा सरकार ने उसे वेंकूवर में प्रवेश नहीं करने दिया। उस जहाज को भारतीय मूल के व्यापारी गुरुदत्त सिंह ने किराए पर लिया था। वेंकूवर तट पर पहुंचने से पहले जहाज को उस पर सवार 376 यात्रियों सहित घेर लिया गया। उसे विवश होकर वहां से वापस लौटना पड़ा। जहाज किसी तरह कलकत्ता के बजबज बंदरगाह पर पहुंचा। इस दौरान प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ चुका था। यात्रा की कठिनाइयों तथा पुलिस-प्रशासन द्वारा डाले जा रहे अड़ंगों से यात्री भडक़ उठे। पुलिस और गदरी बाबाओं में हुई खूनी झड़प में 18 यात्री मारे गए और 202 को पुलिस ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया।
1919 की वह खूनी बैसाखी
मौजूदा हालातों में किसी असंतोष के सशस्त्र विस्फोट की आशंका ब्रिटिश शासन-प्रशासन में गहराने लगी। पुलिस हताशा में आकर दमन पर आमादा हो गई। जलियांवाला बाग का गोलीकांड इसी हताशा का एक विस्फोट था। 13 अपैल, 1919 को बैसाखी के पवित्र पर्व को मनाने के लिए लोग अमृतसर के जलियांवाला बाग में एकत्र हुए थे। एक बड़े विद्रोह की आशंका से ग्रस्त कर्नल रेजिनल्ड ओ डायर ने निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवा दीं। दरअसल, ब्रिटिश उपनिवेशवादी प्रशासन द्वारा किया गया यह बर्बर गोलीकांड उसकी भयजनित आशंकाओं का विस्फोट था। देश में चारों तरफ ऐसा वातावरण बन रहा था जिससे ब्रिटिश साम्राज्य की हताशा बढ़ती जा रही थी।
13 अप्रैल 1919 को पांच हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ द्वारा पुलिस को उकसाने की कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। लोगों में ब्रिटिश अततायियों को लेकर गुस्सा ज़रुर था पर उस दिन वे वहां बैसाखी-मेला मनाने के लिए आए थे। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उनमें आक्रोश अवश्य था, परंतु वे संयत थे। फिर भी पता नहीं क्यों गोरखा, बलूच, राजपूत और सिख सैनिकों को लेकर जनरल माइकल ओ डायर वहां पहुंच गया। देखते ही देखते जलियांवाला बाग के भीतर और बाहर जाने के सारे बंद कर दिए गए। भीड़ को चारों तरफ से घेर कर डायर ने गोली चलाने का आदेश जारी कर दिया।
गोलीबारी लगभग दस मिनट तक चली। ब्रिटिश रिकॉर्ड के मुताबिक 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। किंतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा जारी किए गए दस्तावेज में बताया गया कि गोलियां बेहिसाब चलाई गई थीं, जिनमें 1600 लोग शहीद हो गए थे और 1500 अन्य घायल हो गए थे। जलियांवाला बाग स्थित कुंए से ही 200 से अधिक शव निकाले गए थे। इस नरसंहार के अपराधी को दंडित करने के बजाए जब ब्रिटिश हाउस ऑफ लार्ड्स द्वारा जनरल ओ डायर को शाबाशी दी गई तो भारत में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई। कहा गया कि भारतीय जनता का ब्रिटिश राज पर से भरोसा उठ गया है। पूरा पंजाब और बंगाल गुस्से से उबल उठा। इसके परिणाम स्वरुप 1920 में देशभर में असहयोग आंदोलन शुरू हो गया। ब्रिटिश सम्राज्यवाद की इन दमनकारी नीतियों के विरुद्ध संवेदनशील भारतीयों में असंतोष गहराने लगा। जब भी कोई अवसर मिलता भारत का घनीभूत होता आक्रोश सडक़ों पर भी उतरने लगता था। ऐसा जगह-जगह बार-बार होने लगा।
उधम सिंह का बदला
जलियांवाला बाग में बैसाखी का पर्व मनाने के लिए जमा हुए श्रद्धालुओं पर गोली चलाने के समय बालक उधमसिंह वहां मौजूद था। ब्रिटिश बर्बरता का बदला लेने का संकल्प उसने वहीं कर लिया था। उधमसिंह ने निर्णय किया कि इस बर्बर अपराध में लिप्त माइकल ओ डायर को दंडित किया जाना चाहिए। इसी ध्येय से वह किसी प्रकार ब्रिटेन चला गया। वहां दो दशकों से अधिक समय तक वह ओ डायर को ठिकाने लगाने के मौके की तलाश में जुटा रहा। अंतत: जनरल ओ ‘डायर’ की हत्या उसने 13 मार्च, 1940 को लंदन के कैकस्टन हाल में कर ही दी। उस समय ओ डायर पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर था। वस्तुत: 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला गोली चलाने का आदेश रजिनाल्ड डायर ने दिया था, परंतु माइकल ओ डायर ने उस आदेश का अनुमोदन किया था। रेजिनाल्ड ओ डायर की स्वाभाविक मृत्यु 1927 में हो गई थी, इसलिए उधमसिंह को दूसरे खलनायक माइकल ओ डायर को मौत के घाट उतारने के लिए 21 वर्षों तक इंतज़ार करना पड़ा।
इस तरह देखते हैं कि जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश में स्वतंत्रता संग्राम की रूप रेखा ही बदल दी। अधिक से अधिक युवा क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। अंतत: 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों को भारत से खदेड़ दिया गया और भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की। अबकी बार बैसाखी पर ही रामनवमी का पर्व पड़ रहा है और इसी दिन खालसा पंथ का जन्मोत्सव भी है। 1699 की बैसाखी को ही दशमपातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की और चारों वर्णों के साथ-साथ चारों दिशाओं से देश को एकजुट कर दिया। इस अवसर पर हम भगवान श्रीराम, श्री गुरु गोबिंद सिंह व अपने स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीरों का का पुण्य स्मरण करते हैं।